शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

एक खत महबूब के नाम


    कविता


मेरे हमदम

तुमसे दूर होने के बाद

शायद सब कुछ खोने के बाद

मैने किस तरह खुद को संभाला है,

यूँ समझ लो, उसी को शब्दों में ढाला है.

रोज की तरह आज की शाम,

एक खत फिर तुम्हारे नाम-


तुम्हारे सपनों की तरह यह दिल्ली,

हर दिल के करीब है,पास है.

फिर भी यहाँ का हर शख्स

बेचैन है उदास है.

तुम्हारी खुशी के लिए

इस चकाचौंध से भरी

जिंदगी को चुनना

इंडिया गेट पर नाम खुदवाने के

सपने बुनना

माना कि एक भारतीय के नाते

मेरा भी हक है.

मगर इबारत की तरह खुदे नामों में

तुम मुझे ढूढ़ पाओगी

इसमें शक है.


यह कुतुब

जिसकी स्थापना से अब तक,

न जाने कितनी शदियाँ

उतरी हैं, चढ़ी हैं.

मैं इसकी दृढ़ता का कायल हूँ,

कि यह फिर भी खड़ी है.

मैं मानता तो नहीं, पर यहाँ शोर है.

कहते हैं इसका दिल,

दिल्ली की तरह कठोर है.

कभी-कभी पाश्चात्य हवा का इसे भाना

इसका मस्ती के मूड में आना

हमें ही नही, देश को भी हैरान करता है.

यह दिल्ली की सरकार को,

काफ़ी परेशान करता है.

सोचता हूँ, तुम्हारे लिए,

इसकी चोटी पर जाऊं,

सच्चाई का पता लगाऊं,

जो पास नही, पर दूर भी नही है,

मगर इसकी पनाह में होती,

मर्यादाओं की हत्या का गवाह बनाना,

मेरी अंतरात्मा को मंजूर ही नही है.


यह लाल किला

शायद मुगलकालीन सभ्यता की

अद्भुत मिशल है,

क्योकि इसकी दीवारें आज भी लाल हैं.

पता नही रंग है या खून,

फिर भी एक अजीब सा शुकून,

मुझे एक भारतीय होने का

अहसास दिलाता है,

क्योंकि देश के सम्मान का प्रतीक "तिरंगा"

बंदूकों के साए में,

शान से लहराता है.

चप्पे-चप्पे पर सेना,

फ़िर भी इसे आराम नही है.

चार दीवारी में क़ैद तो है,

पर गुलाम नही है.


चाँदनी चौक का स्वच्छंद जीवन,

जोड़ों का आलिंगन,

यहाँ के युवाओं को खूब भाता है,

शायद इसीलिए इस चौक पर,

चाँदनी के साथ आने से,

चाँद भी शरमाता है.

कौन सा दिल कब जुड़ा,

कब टूटा, पता नही,

किसने किसको लूटा, पता नही,

तन से वतन तक का, लेन देन जारी है.

आज उनकी, तो कल हमारी बारी है.

तुम्हारी खुशी के लिए

कोशिश है कि टिक जाऊं,

पर क्या पता, कल को मैं भी बिक जाऊं.


राजघाट की मशाल

धीमी है, पर जल रही है.

देखकर आभास होता है,

सरकार घाटे में चल रही है.

महान विभूतियों की समाधियों पर,

अब कोई आँसू नही बहाता है.

चार पैसे के फूल खरीद कर,

फेंकता है, चला जाता है.

तुम्हारी खुशी के लिए,

एक तस्वीर हमने भी खिंचवाई है.

श्रद्धा कहो, या मजबूरी,

गर्दन हमने भी झुकाई है.


शांतिवन की शांति,

कहीं खो गयी है.

शायद भ्रष्टाचार या,

कालाबाज़ारी की दुनियाँ में,

विलीन हो गई है.

पहले शायद वन था,

अब मैदान है.

पास में दो चार, चाय-पान की दूकान हैं.

शक्ति स्थल पर गुटर-गू करता,

कबूतरों का झुंड, कितना शर्मनाक है,

लगता ही नही कि यहाँ,

करोड़ों भारतीय महिलाओं का गर्व,

सुपुर्द-ए-खाक है.


इन सबसे दूर,

क़ानून की सीमा रेखा है.

जिसे हमने काफ़ी गौर से देखा है.

तुम भी आना, तो देखना

सहम जाओगी,

जब रुपयों के पीछे क़ानून को,

दौड़ता हुआ पाओगी.

यह सब देख कर,

दिल तो अपना भी जलता है.

पर क्या करूँ, बड़ा शहर है,

यहाँ यह सब चलता है.


मेरा हाल,

जैसे एम्स का अस्पताल,

जिसके जहन के, हर हिस्से में घाव है.

दवाओं का, आज भी अभाव है.

यहाँ के लिए मेरा तन,

सब्जेक्ट है, जो प्रयोगी है.

राशन की क़तारों की तरह,

लगी लाइन गवाह है कि, 

हमारा भारत बीमार है,रोगी है.


कदम -कदम पर बिकता मानव,

तंदूर में सिकता मानव,

मानवाधिकार की गुहार,

मानव अंगों का खुला व्यापार,

अरबों डालर का हवाला,

शेयर घोटाला,

नवनिहालों की हत्या,

महिलाओं पर अत्याचार,

संसद पर हमला,

रोज होता बलात्कार,

यह पढ़कर मैं थक सा जाता हूँ,

और हार कर किसी,

बगीचे की ओर चला जाता हूँ.

जो शायद भारतीय और पाश्चात्य,

संस्कृति की लक्ष्मण-रेखा है,

यहाँ हमने कई कलियों को खिलकर,

बिखरते देखा है.

फिर भी मैने, हिम्मत को साधा है.

भावनाओ को समेटकर बाँधा है.

सोचता हूँ उसे,

तुम्हारे पास ही खोलूँगा.

तुम्हारी गोद में सर रखकर,

जी भरकर रो लूँगा.


वहाँ की तरह धूप,

रोज यहाँ नहीं खिलती.

रहने के लिए घर,सर के लिए छत

यहाँ नहीं मिलती.

पर तुम चिंता मत करना,

मैने धरती को,

तुम्हारी गोद की तरह जाना है,

इस आसमान को, तुम्हारे

आँचल की छाँव माना है.

अब तो हर रात,

जैसे सजने लगी है.

धीरे धीरे यह जिंदगी,

अब अच्छी लगने लगी है.

थोड़े दिनो की बात है,

संभल जाउगा.

औरों की तरह, यहाँ के माहौल में,

मैं भी ढल जाउगा.

पर तब तक मुझे, टूट कर,

बिखरने मत देना.

इंतजार करूँगा खत देना.

            जय सिंह"गगन"

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