शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

दयाराम तूँ काना क्यूँ है................


कविता


देख रहा अंधेर ये फिर भी तूँ उससे अंजाना क्यूँ है.

दयाराम तूँ काना क्यूँ है,दयाराम तूँ काना क्यूँ है.



हरा भरा मधुवन था जिसमें पारियाँ कभी उतरती थी.

पत्ते गाते थे पेड़ों के कोयल कूका करती थी

धरती करती थी हंतखेली हरी मखमली घासों से.

इतराती बल खाती थी वह फूलों भरे लिबासों से.



जिसने तेरी खु सिया छीनी तूँ उसका दीवाना क्यूँ है.

दयाराम तूँ काना क्यूँ है,दयाराम तूँ काना क्यूँ है.



सूखे झरने ताल पूछ्ते, उनकी रंगत कौन ले गया

उनको जीवन भर रोने की ऐसी सज़ा कौन दे गया.

किसने काटे जंगल सारे, कौन तबाही लाया है

बिलख बिलख कर पन्छी कहते किसने उन्हे रुलाया है.



ऐसा है माहौल जहाँ तो तेरा वहाँ ठिकाना क्यूँ है

दयाराम तूँ काना क्यूँ है,दयाराम तूँ काना क्यूँ है.



देख यही वो जगह जहाँ हम घंटों बैठा करते थे

अपनी चाहत के आँचल में रंग प्यार का भरते थे

ठंडी मस्त हवा का झोंका,सिहरन एक जगाता था.

रह रह कर भौरों का गुंजन,मीठे गीत सुनाता था.



कड़ी धूप में जल जाने को तूने मान में ठा ना क्यूँ है.

दयाराम तूँ काना क्यूँ है,दयाराम तूँ काना क्यूँ है.



पर्यावरण ज़रूरत सबकी, हमें इन्हे समझाना होगा.

धरती की रक्षा के खातिर , सबको वृक्ष लगाना होगा.

जारी रहा विनाश अगर तो , वन संपदा खो जाएगी.

फैलेगा अकाल भुखमरी, धरती बंजर हो जाएगी.



जान बूझकर अंजाने का करता रोज बहाना क्यूँ है.

दयाराम तूँ काना क्यूँ है,दयाराम तूँ काना क्यूँ है.

                           जय सिंह "गगन"

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