कविता
नमक महगा ,
तेल महगा,
सेव छोडो ,
बेल महगा.
गैस और घासलेट,
इनसे अब काम मत लो.
रोटी, कपड़ा और मकान,
इनका तो नाम मत लो.
सब्जी के भाव का झटका,
रातों को भी जगाएगा.
बिजली का बिल,
बेहोशी देने के कम आएगा.
शराब सस्ती है,
पर इनसे लड़ नही पाएगी.
कम्बख़्त चढ़ते ही उतर जाएगी.
इंसान घुट- घुट कर
मरने पर मजबूर है.
महगी दवाएँ आम आदमी से दूर हैं.
ग़रीबों के साथ ऐसा मज़ाक,
दुष्कर्म है, सत्कर्म नही है.
फिर भी इस देश के आकाओं को
शर्म नही है.
जय सिंह "गगन"
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