कविता
वक्त जो गुजर चुका जबाब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
है जिगर दहल रहा
खलबली मची यहाँ.
टन तो है पिघल चुका,
रूह बस बची यहाँ.
अब तलक जो ढल चुका शबाब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
सो रहा था ये जहाँ,
आँख जागती रही.
का रॅवा था रुक गया,
साँस भागती रही.
चूर-चूर हो चुका जो ख्वाब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
उजड़ चुका चमन जो आज,
फिर से साज रहा यहाँ,
बेसुरा अजीब सा,
गीत बाज रहा यहाँ.
वादियाँ वो खुश्बू-ए-गुलाब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
थी असीम चाहतें,
एक भी मिली नहीं.
इंतज़ार रह गया,
पर कली खिली नहीं.
खिली हुई धूप आफताब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
है जलधि समीप पर,
प्यास तो बची नहीं.
अब गुबार है बचा,
आस तो बची नहीं.
फिर वही जूनून वो रुआब मांगती है.
जिंदगी हरेक से हिसाब मांगती है.
जय सिंह "गगन"
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