इन ग़ज़लों में प्यार बहुत है.
दर्द बहुत हैं दिल में मेरे,
शब्दों में अंगार बहुत हैं.
आख़िर उनको क्यूँ लगता है,
इन ग़ज़लों में प्यार बहुत है.
तन्हाई से बातें करती,
मेरी रात ढली है अक्सर.
जब भी कोई सपना टूटा,
तब ही कलम चली है अक्सर.
शाम ढले बिस्तर पर आकर,
धुंधली सी यादें सोती हैं.
दिल के जज्बातों से बोझिल,
यह आँखें अक्सर रोती हैं.
लब पर खामोशी को ओढ़े,
सोए हुए गुबार बहुत हैं.
आख़िर उनको क्यूँ लगता है,
इन ग़ज़लों में प्यार बहुत है.
मैं साहिल के साथ न जाने,
कट कर कितनी बार बहा हूँ.
झूठे अफ़सानो से आहत,
जाने कितने दर्द सहा हूँ.
आँखों से छलके अश्कों को,
घूँट घूँट कर पीना सीखा.
अपने ही साए से लिपटा,
अँधियारे में जीना चाहा.
पतझड़ के दामन से लिपटी,
रोती हुई बहार बहुत हैं.
आख़िर उनको क्यूँ लगता है,
इन ग़ज़लों में प्यार बहुत है.
हर रिश्ते को आहत करती,
झूठी एक कहानी मेरी,
मैं ही हूँ यह खोज रही है,
मुझको आज निशानी मेरी.
यह ऐसी दहलीज जहाँ मैं,
बेबश और लाचार खड़ा हूँ.
कितने ही टुकड़ों में टूटा,
बिखरा चारों ओर पड़ा हूँ.
मैं तो मौन समंदर जैसा,
जिसमें पलते ज्वार बहुत हैं.
आख़िर उनको क्यूँ लगता है,
इन ग़ज़लों में प्यार बहुत है.
जय सिंह"गगन"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें