फ़िक्र तो होती है.
गलियों में कोहराम फ़िक्र तो होती है.
शहर में क़त्ल-ए-आम फ़िक्र तो होती है.
आसमान ने निगला कई परिंदों को,
गिद्ध हुए बदनाम फ़िक्र तो होती है.
सब करते हैं चर्चा रोजी-रोटी की.
कोई ना दे काम फ़िक्र तो होती है.
सच की बोली लगे झूंठ की चौखट पर,
बिकता जैसे आम फ़िक्र तो होती है.
घर-घर होती बात किसी समझौते की,
बाहर हो संग्राम फ़िक्र तो होती है.
टुकड़े-टुकड़े ख्वाब बिखर कर आँखों से,
बहते हैं अविराम फ़िक्र तो होती है.
भूख पसरकर सोती झोपड़-पट्टी में,
महलों में आराम फ़िक्र तो होती है.
यह कैसा बटवारा जिसने बाँट दिया,
अल्ला,इशू, राम फ़िक्र तो होती है.
जय सिंह”गगन”
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें