बुधवार, 20 मार्च 2013

लूड़ा लागइ एह सरपन्ची.




बघेली कविता.
लूड़ा लागइ एह सरपन्ची.

नेम-प्रेम त आधइ रहि ग मूड कपार न फुटइ.
लूड़ा लागइ एह सरपन्ची खानदान न टूटइ.

साँझि-सकारे मूडे माही धरे हाथ हम रोई.
चारि साल से कबउ पेट भर सोबइ मिला न होई.
सकल गाँउ भिंसारे एँही आबइ करइ मुखारी.
सोटइ चाइ अउ चाबइ हर दिन आधा किलो सुपारी.

कबउ न होइ के चीनी गुर क करजा ससुरा छूटइ.
लूड़ा लागइ एह सरपन्ची खानदान न टूटइ.

कहँउ घिये क मेटिया ढरकी फूटा कहँउ कठउता.
सगली राति बइठी कइ घर म होइ रोज समझउता.
रोटी मूदे चूल्हा माही सोइ गयीं मेहरारू.
सगला गांउ जुहाइ ओसरिआ छानि रहा हइ दारू.

एहीं भामा-भोरे कउनउ घर-दुआर न लूटइ.
लूड़ा लागइ एह सरपन्ची खानदान न टूटइ.

पापा के बगली सोबइ क लरिका हबइ निहारे.
बाप क पिंडा पारत पापा बइठे हमां दुआरे.
रोबइ बपुरा बिन पापा के आबइ न अउँघाई.
जरतइ जरत लुआठी बपुरा पाबइ रोज बिदाई.

मारे डेरि के भितरेन सुसुकइ अउ खटिया म मूतइ.
आगी लागइ एह सरपन्ची खानदान न टूटइ.

हमहूँ एंह सरपन्ची माही खूबइ नाउ कमानेन.
रहा खरीदब दूरि बाप क भुइयाँ बेचइ जानेन.
दउडि-धूपि कइ कहँउ से कबहूँ आधा तीहा लाएन.
खाइ-पदाइ एइ सब लीन्हीनि बदनामी भर पायेन.

सगला हाथ लुआठी होइ ग होम-गरास क छूतइ.
लूड़ा लागइ एह सरपन्ची खानदान न टूटइ.

पाँच साल म लगी न हाथे एकउ हियाँ अधेला.
एंह जन-सेवा के चक्कर म मगिहीं भीखि गदेला.
जनता लेई नाउ जबइ तक पिअइ-खाइ क पाई.
काटी अँगुरी मूतइ कह्बे गली चलत गरिआई.

"गगन" गाँउ क कुकुरउ लगिहीं ओहँ दिन सब यमदूतइ.
लूड़ा लागइ एह सरपन्ची खानदान न टूटइ.

जय सिंह"गगन"

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