शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

ग़ज़ल.



ग़ज़ल

चाहे जो हो सजा मुकर्रर, मुझ पर लगी दफाओं का.
हाँ मुझसे ही कत्ल हुआ है, खुद मेरी इच्छाओं का.

शुबह हुई बदनाम बेचारी, नज़र मिला अंधियारे से,
कैसा सिला मिला है तुमको, सूरज तेरी वफाओं का.

बिजली चमकी,बादल गरजे,बिन बरसे ही फना हुए,
कब तक करे भरोसा कोई, सावन तेरी घटाओं का.

पायल, बिंदिया, चूड़ी, कंगन, शहरों में राबूद मिले,
शर्म -ओ- हया पूंछती फिरती पता हमारे गावों का.

चंद दिनों की मेहमान है, खुशबू यहाँ फिजाओं में,
भाता है, याराना इसको, इन अल मस्त हवाओं का.

वो करता है रोज सामना, हर मुश्किल हालातों का,
केवल एक सहारा उसको, माँ से मिली दुआओं का.

जय सिंहगगन

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