शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

काहे हबा लुकान हो काकू.

बघेली कविता
काहे हबा लुकान हो काकू.
काल्हि हबइ मतदान हो काकू.
दारू,मुर्गा छानि परे हँ,
मतदाता सब नाली माँ,
बाप क डारे दारू देखि कइ,
लरिका हइ पछीआन हो काकू.
घरे घरे म जाइ के देखा,
तुहूँ बोट खुब माँगे हइ,
जीती हारी केउ पइ अलहन,
तोहरइ हबइ खरान हो काकू.
गाजा-बाजा हल्ला-गुल्ला,
सुनि-सुनि कइ अगड़ाति रही,
बंद होइ गएँ चोंगा जबसे,
भइसिउ नहीं पेन्हानि हो काकू.
कहत रहें के बड़ा बोट हइ,
पुनि काहीं सरकार बनी,
भइने भएँ बेलाला ससुरे,
मामा हमा लुकान हो काकू.
हाथ जोरि कइ खुब घूमें तइ,
सगले गली मोहल्ला माँ,
रमुआ करे हइ हल्ला सगले,
हाथइ हइ गरुआन हो काकू.
उज्ज़र बज्ज़र नेता घुसुरें,
चमरउटी अहिराने म,
दिन भर हमका हेरत होइग,
रमुअउ कहउ देखान हो काकू.
आजु जउन कुछु पाबा छाना,
कल्हि क डारा चूल्हा म.
पाँच साल तक फेरि इ तोहसे,
बस रहिहीं टेडुआन हो काकू.
चला चली हम बटन दबाई,
कुछु अइसन सरकार चुनी.
छटइ इआ अँधियार "गगन"क,
सुंदर होइ बिहान हो काकू.

जय सिंह"गगन"

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