रविवार, 21 अप्रैल 2013

सज़ा.



लहू-लुहान दामिनी अब तक सिसक रही आँधियारे में,
फिर जघन्य अपराध हुआ है संसद के गलियारे में.
लुटी अस्मिता फिर गुड़िया की फिर दिल्ली बदनाम हुई.
संविधान में सन्सोधन की फिर से चर्चा आम हुई.

बदलो उन क़ानूनों को जो ठोस नहीं हैं,सख़्त नहीं हैं,
अब निर्णय की बेला है यह,चर्चाओं का वक्त नहीं है,
जिन आँखों में बहसीपन हो वह गर्दन ही छाँटो अब,
ग़लत नियती गर हाथों की है,उन हाथों को काटो अब,

ऐसी बने व्यवस्था इनकी जनता से पिटवाने की,
जिन अंगों से जुर्म हुआ उन अंगों को कटवाने की.
चौराहे पर गोली मारो ऐसे घृणित दरिंदों को,
मरने को मजबूर करें जो अब मासूम परिंदों को.

तोडो चुन कर मंसूबों को  इनको जहाँ पनाह मिले,
त्वरित न्याय की बने व्यवस्था ऐसा अगर गुनाह मिले.
ना हो कोई राजनीति अब न तो रंग सियासी हो,
सरे-आम बस एक सज़ा और वह भी केवल फाँसी हो.

जय सिंह"गगन"

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