तुम्हें क्या नाम दूं




हे महान विभूति,

तुम्हारे आने की सुखद अनुभूति,

हर दुःख हर पीड़ा से भिन्न है.

कई तरह की बातों से,

मन खिन्न है.

मैं भगवन का भक्त,

मंदिर का पुजारी,

अल्लाह का बन्दा,

मक्का मदीना का मजारी,

वाहे गुरु,

मेरे आराध्य हैं.

मेरी अंतर्त्मा,

उनकी बंदगी के प्रति,

बाध्य है.

प्रभू इसू जीजस,

हरदम मेरे साथ है.

मेरे सर पर सदैव,

उनका हाथ है.

दो वक्त की नमाज,

गुरूद्वारे का साज,

क्रास यन्त्र,

वेदों का मूल मंत्र,

मेरे रोम रोम में बसा है.

मेरा मन एक अजीब सी ,

उलझन में फंसा है.

कहीं तुम्हारा मन,

जाती का बंधन,

स्वीकार कर,

इसके मर्म को समझे.

किसी धर्म को समझे.

तुम औरों की तरह,

आम हो जाओ.

किसी एक भाषा

के गुलाम हो जाओ.

यह मुझे स्वीकार नहीं है.

क्योंकि मुझे

जाती, धर्म या भाषा के,

मुखौटे से प्यार नहीं है.

तुम्हें सब से सत्कार पाने

हर मजहब का प्यार पाने

सब की जान बनने

का मेरा सपना

हकीकत हो

इसमें शक है.

क्योंकि तुम भी स्वतंत्र हो,

तुम्हें भी अपना जीवन

जीने का हक़ है.

हे मेरी पूजा के प्रतिफल,

मैं तुम्हारे इस अहसान का

क्या इनाम दूं.

तुम्हें किस धर्म की शिक्षा दूं,

क्या नाम दूं.

यह सोच नहीं पा रहा हूँ.

इसलिए अपनी कलम बंद कर,

तुमसे

दूर जा रहा हूँ. 


जय सिंह

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